आईटी में भारत कैसे बना अव्वल

Posted By: Dharmendra Goyal - 5:21 pm

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कंप्यूटर
इन्फॉ़र्मेशन टेक्नोलॉजी, या आईटी, या सूचना प्रौद्योगिकी के संसार का एक जाना-माना ब्रांड है – भारत.
आईटी पेशेवरों की संख्या के हिसाब से दुनिया में भारत दूसरे नंबर पर आता है. भारत से अधिक आईटी पेशेवर केवल अमरीका में हैं.
साथ ही भारत इंजीनियरों की संख्या के हिसाब से दुनिया में पहले नंबर पर आता है. भारत में हर साल पाँच-साढ़े पाँच लाख इंजीनियर बन रहे हैं.
और दूसरी शाखाओं के भी बहुत सारे इंजीनियर आईटी के बढ़ते प्रभाव और बढ़ती माँग को देखते हुए आईटी क्षेत्र से जुड़ते जा रहे हैं और वो भी भारत के आईटी पेशेवरों की फौज का हिस्सा बनते जा रहे हैं.
आईटी क्षेत्र में भारतीय इंजीनियरों के दबदबे का आलम ये है कि आज जहाँ भारत के आईटी पेशेवर दुनिया के कोने-कोने में नज़र आते हैं, वहीं दुनिया के कोने-कोने से लोग आईटी सेवाओं के लिए भारतीय कंपनियों से आस लगाए रहते हैं.
मगर क्यों है भारत आईटी क्षेत्र में अव्वल? सिर्फ़ संयोग ने सफलता दिलाई भारत को या भारतीयों ने सचमुच कुछ ख़ास परिश्रम और प्रयास करके ये नाम और मुक़ाम अर्जित किया है?
कारण कई हैं, कारक कई हैं – भारतीय पेशेवर इंजीनियरों की सफलता की इस यात्रा में कुछ रास्तों को बनाना पड़ा, तो कहीं कुछ राहें ख़ुद निकलती चली गईं.
शुरूआत
विवेक वधवा
प्रोफ़ेसर विवेक वधवा अमरीका में भारतीय पेशेवरों की सफलता के गवाह रहे हैं
भारत की इस आईटी यात्रा की शुरूआत हुई चार-पाँच दशक पहले. ऐसे समय, जब भारत में योग्य इंजीनियर तो बन गए मगर उनकी योग्यता को परखने या उनके निखरने के लिए तब देश में कोई अवसर नहीं थे.
ऐसे में भारतीय इंजीनियरों ने विदेशों की ओर क़दम बढ़ाए, ख़ासतौर पर अमरीका में जहाँ योग्यता की परख भी होती थी, निखरने का मौक़ा भी मिलता था.
डॉटकॉम क्रांति के समय सिलिकन वैली में 16 प्रतिशत नई कंपनियाँ भारतीयों ने खोली जो बहुत बड़ी बात है क्योंकि आबादी के हिसाब से भारतीय लोग अमरीकी आबादी का केवल एक प्रतिशत हिस्सा थे
प्रोफ़ेसर विवेक वधवा, ड्यूक विश्वविद्यालय, अमरीका
आहिस्ता-आहिस्ता भारतीय इंजीनियरों ने वहाँ अपनी योग्यता और परिश्रम से स्थान बनाना शुरू किया और धीरे-धीरे वे स्थापित होने लगे.
अमरीका में एक सॉफ़्टवेयर डेवलपर के तौर पर शुरूआत करने के बाद दो टेक्नोलॉजी कंपनियाँ शुरू करनेवाले, ड्यूक विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग विभाग में प्राध्यापक प्रोफ़ेसर विवेक वधवा बताते हैं,"भारतीयों ने सिलिकन वैली में सम्मान प्राप्त करने के साथ-साथ एक-दूसरे की सहायता शुरू कर दी और नेटवर्क बनाना शुरू किया जिससे वे आगे निकलते चले गए.
"डॉटकॉम क्रांति के समय सिलिकन वैली में 16 प्रतिशत नई कंपनियाँ भारतीयों ने खोली जो बहुत बड़ी बात है क्योंकि आबादी के हिसाब से भारतीय लोग अमरीकी आबादी का केवल एक प्रतिशत हिस्सा थे."
भारतीय पेशेवर इंजीनियरों ने आहिस्ता-आहिस्ता अमरीका में जड़ें जमा लीं, फिर समय के साथ-साथ तकनीकें बदली, सोच बदली समीकरण बदले.
अमरीका गए भारतीय पेशेवरों का आत्मविश्वास बढ़ा, वो लोग जो नौकरियाँ करने गए थे, अब दूसरों को नौकरियाँ देने और दिलाने की भूमिका में उतर आए, ऐसे में उन्हें याद आईं - अपनी पुरानी जड़ें.
जड़ से जुड़ाव
मनीष चंद्रा
मनीष चंद्रा पिछले दो दशक के दौरान तकनीक की दुनिया में आए बदलाव का हिस्सा रहे हैं
वे इंजीनियर जो अमरीका में पाँव जमा चुके थे और जिनका भारत से नाता बना हुआ था उन्होंने पाया कि एक ओर जहाँ भारत में योग्य इंजीनियरों के लिए रास्ते सीमित हैं, वहीं अमरीका में काम का अंबार लगा है, और लोग नहीं हैं.
पिछले दो दशक से सिलिकन वैली में काम कर रहे आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र मनीष चंद्रा कहते हैं,"80 के दशक के अंत तक ऐसे भारतीय इंजीनियर जो अमरीका में जम चुके थे उन्होंने भारत के ऐसे इंजीनियरों के बारे में सोचना किया जिनके लिए भारत में नौकरियाँ नहीं थीं.
80 के दशक से 2000 तक तकनीक काफ़ी बदली और भारतीय उसका हिस्सा थे. वाई-टू-के की घटना के समय आईटी का काम अचानक बढ़ गया
मनीष चंद्रा, अमरीका में बसे पूर्व आईआईटी छात्र
"भारतीय पेशेवरों के अमरीका में दबदबा बनने की शुरूआत इसतरह से हुई कि पहले-पहले भारतीय इंजीनियरों ने अस्थायी वीज़ा पर अमरीका जाकर काम करना शुरू किया."
अस्सी-नब्बे के दशक का ये वो समय था जब दुनिया तेज़ी से बदल रही थी और जैसे-जैसे वर्ष 2000 क़रीब आया, वाईटूके नामक एक घटना ने आईटी क्षेत्र में अचानक ज़बरदस्त अवसर पैदा कर दिए.
मनीष कहते हैं,"80 के दशक से 2000 तक तकनीक काफ़ी बदली और भारतीय उसका हिस्सा थे..ऐसे में वाई-टू-के घटना के समय जब वर्ष 2000 में ये हुआ कि सारे कंप्यूटर बदले जाएँगे तो आईटी का काम अचानक बढ़ गया."
इंग्लिश-क्वालिटि-क्वांटिटि
प्रोफ़ेसर सदगोपन
प्रोफ़ेसर एस सदगोपन भारत में आईटी क्षेत्र में भारत की सफल यात्रा के सहयात्री रहे हैं
मगर सवाल ये उठता है कि ऐसे समय में जब तकनीक की दुनिया बदल रही थी तो बाकी देश क्यों पीछे रह गए और भारत क्यों आगे निकल गया?
आईआईटी कानपुर के पूर्व प्राध्यापक और वर्तमान में बंगलौर स्थित इंटरनेशनल इंस्टीच्युट ऑफ़ इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफ़ेसर एस सदगोपन इसके तीन कारण गिनाते हैं – और इसका नाम उन्होंने दिया है – 'इक्यूक्यू एडवांटेज' यानी इंग्लिश क्वालिटि क्वांटिटि.
इक्यूक्यू यानी इंग्लिश-क्वालिटि-क्वांटिटि – तीनों मिलकर भारत को लाभ पहुँचा रहे हैं
प्रोफ़ेसर एस सदगोपन, आईआईआईटी, बंगलौर
प्रोफ़ेसर सदगोपन कहते हैं,"आज भारत हर साल साढ़े पाँच लाख इंजीनियर बना रहा है, दुनिया में और कहीं इतनी बड़ी संख्या में इंजीनियर नहीं बनते, फिर भारत में अंग्रेज़ी का भी अच्छा-ख़ासा चलन है – तो क्वालिटि-क्वांटिटि और इंग्लिश – तीनों मिलकर भारत को लाभ पहुँचा रहे हैं."
प्रोफ़ेसर सदगोपन के अनुसार इ-क्यू-क्यू ऐडवांटेज के कारण ही भारत दूसरे देशों जैसे चीन, फ़िलीपींस, आयरलैंड और इसराइल जैसे देशों से आगे निकल जाता है.
प्रोफ़ेसर सदगोपन कहते हैं,"चीन क्वांटिटि और क्वालिटि के मामले में भारत से बेहतर है मगर उनकी समस्या अभी तक अंग्रेज़ी की है; फ़िलीपींस क्वालिटि में पिछड़ता है और आयरलैंड-इसराइल क्वांटिटि में भारत की बराबरी नहीं कर पाते."
आउटसोर्सिंग का फ़ायदा
25 साल पहले भारत में जब आउटसोर्सिंग शुरू हुई तो तब किसी और देश की निगाह इसपर नहीं थी, तो भारत को पहल करने का निश्चित रूप से फ़ायदा हुआ
प्रोफ़ेसर पंकज जलोटे, निदेशक, आईआईआईटी दिल्ली
भारत के आईटी क्षेत्र की एक अलग पहचान ये रही है कि आउटसोर्सिंग ने उसे विश्व में एक अलग स्थान दिलाया है. आउटसोर्सिंग - यानी दूसरे देशों के काम को ऐसे देशों में करवाना जहाँ लागत कम हो - भारत इसका आदर्श केंद्र बना.
आईआईटी दिल्ली में प्राध्यापक रहे और वर्तमान में दिल्ली स्थित इंद्रप्र्स्थ इंस्टिच्यूट ऑफ़ इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफ़ेसर पंकज जलोटे कहते हैं कि भारत को पहल करने का लाभ हुआ.
प्रोफ़ेसर जलोटे कहते हैं,"25 साल पहले भारत में जब आउटसोर्सिंग शुरू हुई तो तब किसी और देश की निगाह इसपर नहीं थी, तो भारत को पहल करने का निश्चित रूप से फ़ायदा हुआ.
"बाद के वर्षों में जब टेलीकॉम की सुविधा सस्ती हुई तो आउटसोर्सिंग का काम और आसान हो गया और भारत आगे निकलता चला गया."
मिला-जुलाकर आईटी क्षेत्र में पूरे विश्वपटल पर दबदबा रखनेवाली भारत की प्रतिष्ठा का श्रेय निश्चित रूप से उन पेशेवर इंजीनियरों को जाता है जिन्होंने अपने पुरूषार्थ और परिश्रम के बल-बूते सात समुंदर पार जाकर अवसरों को तलाशा.
आज वही भारतीय दुनिया के लिए अवसर बना रहे हैं.

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